किये हुए शुभ या अशुभ कर्मों को कभी न कभी अवश्य ही भोगना पड़ेगा। पूर्व जन्मों के कर्म संस्कारों का रूप (जीन) धारण कर वर्तमान जीवन में भोगने हेतु उपस्थित होते हैं। कर्म को पूरा भोग चुकने पर वह अशेष (समाप्त) हो जाता है। जो कर्म हम वर्तमान में कर रहे हैं इन कर्मों के फल को इस या अगले जन्म में हमें भोगना पड़ेगा। मानव योनि में हमें अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के फल भोगने तो पड़ते हैं किन्तु यह कर्मयोनि कहलाती है, अर्थात हम इस जीवन में अपने विवेक से स्वतंत्र कर्म करने के अधिकारी भी हैं। स्वतंत्र कर्मों को कुशलता से करने हेतु सर्ववेत्ता परमात्मा ने हमारे शरीर में एक संगणक की व्यवस्था की है। आज्ञा के वशीभूत मनुष्य शरीरस्थ उस परम संगणक की सूचनाओं की अवहेलना करता है।
धीरे धीरे वे सूचनाऐं उसको समझ में आनी बंद हो जाती हैं। मानव निर्मित संगणक केवल पूर्व निर्धारित निर्देशों का पालन करता है, किन्तु परमेश्वर द्वारा हमारे हृदय में स्थापित संगणक विवेक बुद्धि का उपयोग करता है, इसलिये यह परम संगणक है। इस संगणक को क्रियाशील रखने की योग्यता यम और नियमों के पालन से प्राप्त होती है।
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उवट, महीधर और सायणाचार्य आदि भाष्यकारों का विचार था कि वेद में वर्णित अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र आदि कल्पित स्वर्ग में रहने वाले देवता हैं। ये देवता पृथ्वी पर दिखाई देने वाले अग्नि, वायु और जलादि पदार्थों के और आकाश में दिखाई देने वाले सूर्य, चन्द्रमा और उषा आदि के अधिष्ठात्री देवता माने जाते हैं। इस प्रकार से...