उवट, महीधर और सायणाचार्य आदि भाष्यकारों का विचार था कि वेद में वर्णित अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र आदि कल्पित स्वर्ग में रहने वाले देवता हैं। ये देवता पृथ्वी पर दिखाई देने वाले अग्नि, वायु और जलादि पदार्थों के और आकाश में दिखाई देने वाले सूर्य, चन्द्रमा और उषा आदि के अधिष्ठात्री देवता माने जाते हैं। इस प्रकार से इन देवताओं के दो प्रकार के स्वरूप हो जाते हैं। एक स्वरूप अग्नि, जल, वायु आदि के रूप में जड़ पदार्थ के रूप में रहता है और दूसरा स्वरूप अधिष्ठात्री देवता के रूप में मनुष्यों की भांति प्राणधारी व चेतनायुक्त शरीर के रूप में रहता है। इन भाष्यकारों के विचार से इन अधिष्ठात्री देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों में इनसे सम्बन्धित मंत्रों की आहुतियाँ दी जाती हैं। यह माना जाता है कि ये देवता अदृश्य रूप धारण करके यज्ञ में उपस्थित होकर इन पदार्थों का भक्षण करते हैं। वेदमंत्रों के रूप में अपनी स्तुतियों के सुनकर ये प्रसन्न हो जाते हैं और यजमान की उस कामना जिसके लिए यज्ञ किया गया है, पूर्ण करते हैं। यह भी माना जाता था कि इन यज्ञ-याग करने वालों को मरणोपरान्त स्वर्ग में भी भेज देते थे। स्वर्ग में इन्हें देवताओं की भांति ही सुखभोग प्राप्त होते थे। महर्षि दयानन्द ने आर्योदेश्यरत्नमाला में यज्ञ की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो अग्निहोत्र से लेके अश्वेमधपर्यन्त वा जो शिल्पव्यवहार और पदार्थ विज्ञान है, जो कि जगत के उपकार के लिए किया जाता है, उसको यज्ञ कहते हैं।
Commentators like Uvat, Mahidhar and Sayanacharya were of the opinion that Agni, Indra, Varun, Mitra etc. mentioned in the Vedas are gods living in imaginary heaven. These gods are considered to be the presiding deities of fire, air and water visible on earth and of the sun, moon and dawn visible in the sky.
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उवट, महीधर और सायणाचार्य आदि भाष्यकारों का विचार था कि वेद में वर्णित अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र आदि कल्पित स्वर्ग में रहने वाले देवता हैं। ये देवता पृथ्वी पर दिखाई देने वाले अग्नि, वायु और जलादि पदार्थों के और आकाश में दिखाई देने वाले सूर्य, चन्द्रमा और उषा आदि के अधिष्ठात्री देवता माने जाते हैं। इस प्रकार से...